अध्याय 3: कर्मयोग
श्लोक 13
भगवान के भक्त सभी प्रकार के पापो से मुक्त हो जाते है, क्योकि वे यज्ञ में अर्पित किये भोजन(प्रसाद) को ही खाते है! अन्य लोग, जो अपनी इन्द्रियसुख के लिए भोजन बनाते है, वे निश्चित रूप से पाप खाते है!
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः
भुंजते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात !13!
यज्ञ-शिष्ट- यज्ञ सम्पन्न करने के बाद ग्रहण किये जाने वाले भोजन को; अशिनः - खाने वाले; संत: - भक्तगण; मुच्यन्ते - छुटकारा पाते है;
सर्व - सभी प्रकार के; किल्बिषैः - पापो से; भुज्जते- भोगते है; ते - वे;
तु - लेकिन; अघम् - घोर पाप; पापा: - पापिजन; ये - जो; पन्चन्ति - भोजन बनाते है; आत्म-कारणात - इन्द्रियसुख के लिए !
भावार्थ
भगवान के भक्त सभी प्रकार के पापो से मुक्त हो जाते है, क्योकि वे यज्ञ में अर्पित किये भोजन(प्रसाद) को ही खाते है! अन्य लोग, जो अपनी इन्द्रियसुख के लिए भोजन बनाते है, वे निश्चित रूप से पाप खाते है!
तात्पर्य
भगवद्भक्तो या कृष्णभावित पुरुषो को संत कहा जाता है! वे सदैव भगवत्प्रेम में निमग्र रहते है, जैसा कि ब्रम्हासहिता में(5.३८) कहा गया है- प्रेमान्च्छुरितभक्तिविलोचनेन संत: सदैव हृदयेषु विमोकयन्ति !
सन्तगण श्रीभगवान गोविन्द(समस्त आनन्द के दाता), या मुकुंद (मुक्ति के दाता), या कृष्ण (सभी को आकृष्ट करने वाले पुरुष) के प्रगाढ़ प्रेम में मग्न रहने के कारण कोई भी वस्तु परम पुरुषो को अर्पित किए बिना ग्रहण नहीं करते! फलत: ऐसे भक्त पृथक-पृथक भक्ति-साधनों के द्वारा, यथा श्रवण, कीर्तन, स्मरण, अर्चन आदि के द्वारा यज्ञ करते रहते है, जिससे वे संसार की सम्पूर्ण पापमयी संगति के कल्मष से दूर रहते है! अन्य लोग, जो अपने लिए या इन्द्रियतृप्ति के लिए भोजन बनाते है वे न केवल चोर है, अपितु सभी प्रकार के पापो को खाने वाले है! जो व्यक्ति चोर तथा पापी दोनों हो भला वह किस तरह सुखी रह सकता है? यह सम्भव नहीं! अत: सभी प्रकार से सुखी रहने के लिए मनुष्यो को पूर्ण कृष्ण भावनामृत में संकीर्तन-यज्ञ करने की सरल विधि बताई जानी चाहिए,अन्यथा संसार में शान्ति या सुख नहीं हो सकता!
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