अध्याय 3 कर्मयोग
श्लोक - 18
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्र्चन !
न चास्य सर्वभूतेषु कश्र्चिदर्थव्यपाश्रयः !!१८!!
न - कभी नहीं; एव - निश्चय ही; तस्य - उसका; कृतेन - कार्यसम्पादन से; अर्थ: - प्रयोजन; न - न तो; अकृतेन - कार्य न करने से; इह - इस संसार में; कश्र्चन - जो कुछ भी; च - तथा; अस्य - उसका; सारभूतेषु - समस्त जीवो में; कश्र्चित - कोई; व्यपाश्रयः - शरणागत !
भावार्थ:
स्वरूपसिध्द व्यक्ति के लिए न तो अपने नियत कर्मो को करने की आवश्यकता रह जाती है, न ऐसा कर्म न करने का कोई कारण ही रहता है! उसे किसी अन्य जीव पर निर्भर रहने की आवश्यकता भी नहीं रह जाती!
तात्पर्य:
स्वरूपसिध्द व्यक्ति को कृष्णभावनाभावित कर्म के अतिरिक्त कुछ भी करना नहीं होता! किन्तु यह कृष्णभावनामृत निष्क्रियता भी नहीं है, जैसा कि अगले श्लोक में बताया जाएगा !
कृष्ण भावनाभावित व्यक्ति किसी की शरण ग्रहण नहीं करता - चाहे वह मनुष्य हो या देवता !
कृष्ण भावनामृत में वह जो भी करता है कि उसके कर्तव्य - सम्पादन के लिए पर्याप्त है !
दोस्तों किताबो को पढने से बहुत अच्छे ज्ञान मिलते है और जितने भी आज आमिर है सभी ने अच्छी अच्छी किताबे पढ़ी है और आज भी सबसे ज्यादा समय किताबो के साथ बीताते है - दोस्तों कल्पना के बारे में जानना बहुत जरुरी है कल्पना से आप अद्भुत ख्याति पा सकते है अपने जिंदगी में -
किताब खरीदने के लिए click करे -
Related Post :-
- परिचय श्रीमद्भागवत गीता
- श्रीमद्भागवत गीता के अध्याय
- गीता सार
- अध्याय 3 कर्मयोग श्लोक 15
- अध्याय 3 कर्मयोग श्लोक 17
- Youtube :- Bindass Post channel को Subscribe करे
- Facbook :- Bindass Post like करे
- Twitter :- Bindass Post Follow करे
Online Shopping Website :- www.crazyshopi.com
दोस्तों आप से उम्मीद करता हु कि इस blog को आप सभी follow/join कर लिए होगे
!!.... धन्यबाद .... !!
"जय हिन्द जय भारत''"जय श्रीकृष्णा जय श्री गोपाला "
आप अपने सुझाव हमें जरुर दे ....
आप के हर सुझाव का हम दिल से स्वागत करते है !!!!! ConversionConversion EmoticonEmoticon