११ अगस्त को आज़ाद मैदान में हुई "सुनियोजित हिंसा" के विरोध में मुंबई पुलिस की महिला उपनिरीक्षक सुजाता पाटिल द्वारा, पुलिस विभाग की एक पत्रिका में प्रकाशित एक कविता के खिलाफ "समाजसेवियों"(?) के एक समूह और "महेश भट्ट जैसे" सेकुलरों(?) ने हाईकोर्ट में जाने का फैसला किया है.
इन "समाजसेवियों"(?) का कहना है कि एक पुलिस अधिकारी को इस तरह की भाषा का उपयोग नहीं करना चाहिए. एक एडवोकेट एजाज़ नकवी ने इस कविता की तुलना ओवैसी के भाषण से की है और पुलिस कमिश्नर से सुजाता पाटिल को बर्खास्त करने की मांग की है.
हम ना समझे थे बात इतनी सी थी,
लाठी हाथ में थी, पिस्तौल कमर पे थी,
गाड़िया फुकी थी, आँखे नशीली थी,
धक्का देते उनको, तो ओ भी जलते थे,
हम ना समझे थे बात इतनी सी !!
होसला बुलंद था, इज्जत लुट रही थी,
गिराते एक-एक को, क्या जरूरत थी इशारों की,
हम ना समझे थे बात इतनी सी !!
हिम्मत की गद्दारों ने, अमर ज्योति हाथ लगाने की,
काट देते उनके हाथ तो फरियाद किसी की भी ना होती,
हम ना समझे थे बात इतनी सी !!
भूल गये ओ रमजान, भूल गये ओ इंसानियत,
घाट उतार देते एक-एक को,
अरे क्या जरूरत थी किसी को डरने की,
संगीन लाठी तो आपके ही हाथ में थी,
हम ना समझे थे बात इतनी सी !!
हमला तो हमपे था, जनता देख रही थी,
खेलते गोलियों की होली तो,
जरूरत ना पड़ती, नवरात्रि में रावण जलाने की,
रमजान के साथ-साथ, दिवाली भी होती,
हम ना समझे थे बात इतनी सी !!
सांप को दूध पिलाकर,
बात करते है हम भाई चारे की,
ख्वाब अमर जवानो के,
और जनता भी डरी-डरी सी,
हम ना समझे थे बात इतनी सी !!
--->> by- सुजाता पाटील
पुलिस निरीक्षक,
मुंबई
इस कविता को पढ़कर आप स्वयं समझ गए होंगे कि आज़ाद मैदान की घटना के बाद पुलिस फ़ोर्स के मनोबल में कितनी गिरावट हुई है और पुलिसकर्मी अपने हाथ बंधे होने की वजह से कितने गुस्से और निराशा में हैं.
उल्लेखनीय है कि ११ अगस्त को आज़ाद मैदान में मुल्लों के हिंसक प्रदर्शन के दौरान कई पुलिसकर्मी घायल किये गए, कुछ महिला कांस्टेबलों के साथ छेड़छाड़ और बदसलूकी की गई, शहीद स्मारक को तोडा-मरोड़ा गया. पुलिस के पास पर्याप्त बल था, हथियार थे, डंडे थे... सब कुछ था लेकिन मुल्लों की उस पागल भीड़ पर काबू पाने के आदेश नहीं थे. पुलिस वाले पिटते रहे, अधिकारी चुप्पी साधे रहे और कांग्रेस की सरकार मुस्लिम वोटों की फसल पर नज़र रखे हुए थी.
जैसा कि सभी जानते हैं इसी घटना के एक आरोपी को पकड़ने के लिए जब मुम्बई पुलिस बिहार से एक मुल्ले को उठा लाई थी, तो नीतीश ने हंगामा खड़ा कर दिया था, क्योंकि बात वहां भी वही थी... यानी "मुस्लिम वोट". पुलिस बल कितना हताश और आक्रोश से भरा हुआ है इसका सबूत इस बात से भी मिल जाता है कि जब राज ठाकरे ने आज़ाद मैदान की इस सुनियोजित हिंसा के खिलाफ जोरदार रैली निकाली थी, तब शिवाजी पार्क मैदान में एक कांस्टेबल ने खुलेआम मंच पर आकर राज ठाकरे को इसके लिए धन्यवाद ज्ञापन करते हुए, गुलाब का फूल भेंट किया था...
इन "तथाकथित समाजसेवियों" का असली मकसद पुलिस का मनोबल एकदम चूर-चूर करना ही है. महेश भट्ट जैसे "ठरकी और पोर्न" बूढ़े, जिसका एकमात्र एजेंडा सिर्फ हिन्दुओं का विरोध करना ही है, वह अक्सर ऐसी मुहिम में सक्रीय रूप से पाया जाता है. यानी अब इनके अनुसार कोई महिला पुलिस अपनी "अन्तर्विभागीय पत्रिका" में अपनी मनमर्जी से कोई कविता भी नहीं लिख सकती, जबकि यही कथित समाजसेवी और मानवाधिकारवादी आए दिन "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" का झंडा लिए घूमते रहते हैं.
कविता में आपने नोट किया होगा कि इसकी मूल पंक्ति है "हम न समझे थे बात इतनी सी..." यह पंक्तियाँ जैकी श्रोफ और अमरीश पुरी अभिनीत फिल्म "गर्दिश" के गीत की पंक्तियाँ हैं. उस फिल्म में एक ईमानदार पुलिस कांस्टेबल के मन की व्यथा, उसके साथ हुए अन्याय के बारे में बताया गया है. स्वाभाविक है कि सुजाता पाटिल के मन में भी आज़ाद मैदान की "सुनियोजित हिंसा" और बदसलूकी के खिलाफ गुस्सा, घृणा, हताशा के मिले-जुले भाव बने हुए हैं. इसलिए उनकी कलम से ऐसी मार्मिक कविता निकली है, जिसे पढ़कर तथाकथित सेकुलर, नकली समाजसेवी और फर्जी मानवाधिकारवादी जले-भुने बैठे हैं. जबकि यही मानवाधिकारवादी और समाजसेवी, उस समय मुंह में दही जमाकर बैठ जाते हैं, जब माओवादीएक पुलिसवाले के शव के पेट में उच्च शक्ति वाला बम लगा देते हैं... लानत है ऐसे समाजसेवियों पर. साथ ही हजार लानत है महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकार पर जो "सेकुलरिज्म" के नाम पर मुस्लिम वोटरों को खुश करने के लिये आज़ाद मैदान हिंसा के तमाम आरोपियों में से इक्का-दुक्का को ही पकड़ने का दिखावा कर रही है., जबकि उस हिंसा के ढेर सारे वीडियो फुटेज उपलब्ध हैं, जिनसे उन तमाम उत्पाती मुल्लों को धर-दबोचा जा सकता है.
इन कथित समाजसेवियों को सुजाता पाटिल द्वारा आज़ाद मैदान के दंगाइयों के लिए “देशद्रोही” और “सांप” शब्दों पर आपत्ति है, साथ ही महेश भट्ट को यह भी आपत्ति है कि पाटिल ने अपनी कविता में “गोलियों की होली” शब्द का उपयोग करके हिंसात्मक मनोवृत्ति का परिचय दिया है.
शायद ये समाजसेवी चाहते होंगे कि गृहमंत्री शिंदे की तरह इन “जुमेबाज” दंगाइयों को“श्री हाफ़िज़ सईद” कहा जाए? या फिर परम ज्ञानी भविष्यवक्ता दिग्विजय सिंह की तरह“ओसामा जी” कहा जाए, या फिर शायद ये लोग तीस्ता सीतलवाड़ जैसे पैसा खाऊNGOवादियों की तरह पुलिस के सिपाहियों के मुंह से, “माननीय सोहराबुद्दीन” कहलवाना चाहते हों... कांग्रेस और मानवाधिकारवादियों की ऐसी ही छिछोरी राजनीति, हम बाटला हाउस के शहीद श्री मोहनचंद्र के बारे में भी देख चुके हैं.
यह बात तो सर्वमान्य है कि माफिया हो या पुलिस, दोनों का काम उसी स्थिति में आसानी से चलता है, जब उनका “जलवा” (दबदबा) बरकरार रहे, और वर्तमान परिस्थिति में दुर्भाग्य से माफिया-गुंडों-दंगाइयों-असामाजिक तत्वों और दो कौड़ी के नेताओं का ही “दबदबा” समाज में कायम है, पुलिस के डंडे की धौंस तो लगभग समाप्त होती जा रही है. इसके पीछे का कारण यही “श्री हाफ़िज़ सईद” और “ओसामा जी” कहने की घटिया मानसिकता तथा मानवाधिकार के नाम पर रोटी सेंकने और बोटी खाने वाले संदिग्ध संगठन हैं... जबकि देश की इस विकट परिस्थिति में हमें सेना-अर्धसैनिक बल तथा पुलिस के निचले स्तर के सिपाही और इन्स्पेक्टर इत्यादि का मनोबल और धैर्य बढाने की जरूरत है, वर्ना ये बल सुजाता पाटिल और राज ठाकरे को फूल भेंट करने वाले कांस्टेबल की तरह अन्दर ही अन्दर घुटते रहेंगे और हताश होंगे, जो कि देश और समाज के लिए बहुत घातक होगा.
सन्दर्भ :- http://timesofindia.indiatimes.com/city/mumbai/Activists-to-move-high-court-over-cops-riot-poem/articleshow/18012301.cms
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